मुंबई से उत्तराखंड में भू-कानून पर वरिष्ठ पत्रकार लेखक केसर सिंह बिष्ट की विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट. उत्तराखंडमें जमीन खरीदने को लेकर चर्चा जब भी आगे बढ़ती है, कुछ लोग सामने आ खड़े होते हैं कि देश के हर नागरिक को देश के किसी भी कोने में जमीन खरीदने का अधिकार है…सही बात है ‘जरूर खरीदिए। पूरा हिमालय ही खरीद लीजिए। बहुत पैसा है आपके पास।’ पर ये तो बताइए भाई साहब कि जिस पहाड़ में जीवन इतना कष्टमय है कि हमारे पुरखे उसे छोड़ने मजबूर हुए, उसे खरीदने की आपको सनक और हनक क्यों चढ़ी है? दूसरी बात आज अब जब नई पीढ़ी अपनी ही सरजमीं पर अपने वज़ूद के लिए तरस रही है, उस वक़्त उस पहाड़ पर अपने धन-बल के बल पर आप अपना #स्वर्ग बसाना चाहतेहैं…आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर समाज को उसकी अपनी जमीन से बेदखल करना चाहते हैं। क्यों भला?
भाई साहब/बहन जी, पहाड़ में बसने का इतना ही शौक है तो असम-नागालैंड-त्रिपुरा में खरीद लीजिए, हिमाचल में खरीद लीजिए…आप जानते हैं नहीं खरीद सकते…पर उत्तराखण्ड में खरीद सकते हैं, क्योंकि एक तो इसकी आधी आबादी देश-विदेश में भटकंती पर है और जो बची है, उसमें कुछ भू-माफिया के साथ शामिल हो गए हैं और कुछ प्रतिरोध की स्थिति में ही नहीं है।…तो इस सबका फायदा उठा कर आप उत्तराखंड की जमीन हथिया लेंगे।.और ऐसा क्या है जो आप दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों को धन-बल पर हड़पना चाहते हैं…क्या करनेवाले हैं आप इन दुर्गम इलाकों में? क्या आप सबके पास यहां रोजगार पैदा करने का कोई अनूठा मास्टरप्लान है? कि आप पहाड़वासियों के प्रेम में इस कदर डूब गए हैं कि इनके साथ जीने को तरस रहे हैं?
हम सब जानते हैं और सभी को पता है कि आप पहाड़ को बेच खाने के तमाम तरीके जानते हैं, जो पहाड़ी नहीं जानते। आप इसे ऐशगाह बनाना चाहते हैं…अपने लिए भी और अपने जैसे दूसरे लोगों के लिए भी…आप पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों को अनैतिक गतिविधियों का केंद्र बनाना चाहते हैं। यह कोई कहनेवाली बात भी नहीं कि पहाड़ में बसना आपकी जरूरत नहीं, स्वार्थ का हिस्सा है और हम इसी स्वार्थ के खिलाफ आपकी नियत पर अंकुश के पक्षधर हैं।..और यह स्थानीय लोगों का हक़्क़ है कि वह बाहरी दखल को रोके…उस दखल को जो स्थानीय लोगों को कमतर समझ कर उन पर अपने वज़ूद को स्थापित करना चाहता है। …दरअसल, यह #बाहरी कोई ‘आम आदमी’ नहीं होता। यह ‘बाहरी’ व्यक्ति, जिस पर स्थानीय लोग एतराज करते हैं, वह दरअसल ‘धन-बल’ वाला माफिया होता है और इसी माफ़िया को स्थानीय आवाज पर एतराज होता है। इसलिए इस माफ़िया के हलक में हाथ डालने की हिम्मत स्थानीय लोगों में होनी चाहिए…और उत्तराखंडियों को भी यह ताकत पैदा करनी होगी।इन लोगों ने उत्तराखंड को सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से निगल लिया है। उत्तराखंड के वास्तविक वज़ूद को हड़प लिया है। दुर्भाग्य से उत्तराखण्ड के लोग प्रतिकार की ताकत पैदा नहीं कर पाए…पर अब इस ताकत के बिना खुद को बचाना मुश्किल है। पहाड़ों में बाहरी दखलंदाजी पर रोक लगनी बेहद-बेहद जरूरी है। यह सिर्फ जमीन का मसला नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश में हस्तक्षेप का भी मसला है। यह #बाहरी लोग पहाड़ के घरों से धंधे के नाम पर हमारे पुश्तैनी गहने और भांडी-बर्तन लूट ले गए। हमारी बहू-बेटियों को शहरी मंडी में खड़ा कर दिया और जड़ी-बूटियों का दोहन कर गए…फिर भी तुम्हें पहाड़ में घुसने दें?
आपको यह मूलभूत जानकारी तो होगी ही कि हर राज्य अपने स्थानीय हितों के लिए सजग रहता है…इस कदर कि किसी प्रदेश की सीमा रेखा में घुस कर यहां तक महसूस होने लगता है जैसे किसी विदेशी धरती में घुस आए हों। गुजरात में घुसते ही आपको क्या लगता है?
दक्षिण भारत में घुसते हुए क्या अनुभव होता है?
राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब? स्थानीय मसलों पर इनकी संवेदनशीलता देखी है? तो उत्तराखंड से आपत्ति क्यों? .और महसूस करने-कराने की कोई संवैधानिक व्यवस्था है? हमें हमेशा यह भी ख़याल रखना चाहिए कि कुछ भावनात्मक बातों को हमेशा संवैधानिक कसौटी पर नहीं कस कर नहीं देखना चाहिए।मूल बात यह कि ग़र स्थानीय लोग अपने स्थानीय हितों को लेकर मुस्तैद हैं, तो क्या गलत है। यह तो उनका वाजिब हक़्क़ है। ऐसे तो कल सारे भूमाफिया उत्तराखंड की जमीन खरीद लेगा…और फिर जमीन खरीद कर वहां के सामाजिक जीवन में, स्थानीय हितों पर हमला नहीं करेगा, इस बात की क्या गारंटी।
कुछ साल पहले तो बद्रीनाथ मंदिर के पास एक जैन मंदिर की कल्पना तक साकार होने लगी थी।…और आपको बता दूं महाराष्ट्र में भी आप किसी आदिवासी की जमीन नहीं खरीद सकते…और मुझ जैसे #बाहरी को इस बात पर कोई एतराज भी नहीं है कि यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर हमारा नहीं, स्थानीय लोगों का हक़्क़ है।उस मायने में मुझे खुद को बाहरी मानने पर कोई एतराज नहीं। लेकिन सामाजिक परिवेश में महाराष्ट्र के लोगों ने हमें गहराई से अपनाया है।दूसरी बात…ये जो लोग ‘कोई कहीं भी खरीद सकता है’ का राग अलाप रहे हैं, यह बताएं कि शहरों में बड़ी-बड़ी नौकरियों में बंगाली बंगालियों को ही क्यों नियुक्त करता है। कोई मारवाड़ी धंधे में अपने अगल-बगल मारवाड़ियों को ही क्यों बसाता है। वह पिछले दरवाजे से ऐसी साजिश क्यों रचता है कि उसकी बगल की दुकान में कोई और न बस जाए। यही गुजराती करता है और दक्षिण भारतीय भी…यहां सारे #भारतवासी एक देश के क्यों नहीं हो जाते? फिल्म उद्योग में सिर्फ पंजाबियों का ही बोलबाला क्यों है। क्या पंजाबियों की सारी आबादी ही अक्लमंद हो गयी है। सारे #खान ही क्यों फिल्मों में छाए हुए हैं।बहरहाल, स्थानीय लोगों के कुछ मूलभूत अधिकार होते हैं और उनका सरंक्षण हम सबकी जिम्मेदारी है। दो पैसे कमा कर उनका हक़्क़ छीनने की कोशिश करेंगे, तो असम में उल्फा का इतिहास भी पढ़ लें, महाराष्ट्र में शिवसेना का और दूसरे राज्यों में स्थानीय बगावत का भी।…और जानते ही होंगे इस बगावत को संभालना हमेशा ही मुश्किल होता है।