माघ पूर्णिमा की द्वादशी को भीष्म द्वादशी के नाम से मनाया जाता है। इसे गोविंद द्वादशी के भी नाम से जाना जाता हैं। इस दिन व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। पंडितों का मानना है कि जिन लोगों के संतान न हो, इस दिन व्रत रखने से उसको संतान की प्राप्ति होती है। भीष्म द्वादशी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत भीष्म पितामह के निमित्त किया जाता है।
इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है। शास्त्रों के अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग अष्टमी तिथि को किया था लेकिन उनके निमित्त जो भी धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए उसके लिए द्वादशी तिथि का चयन किया गया था.अत: उनके निर्वाण दिवस के पूजन को इस दिन मनाया जाता है।
भीष्म द्वादशी व्रत का महत्व
शास्त्रों के अनुसार भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भीष्म द्वादशी पर भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व सामर्थय के अनुसार दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होता है। भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है।
पौराणिक कथा
राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं। परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्य गंधा नाम की कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं। राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं।
परंतु मत्स्य गंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि उनकी पुत्री को होने वाली संतान ही हस्तिनापुर राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। यही (मत्स्य गंधा) आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई। राजा शांतनु यह शर्त मानने से इंकार करते हैं, लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शरशैय्या पर शयन किया।
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