खबर संसार हल्द्वानी.इंसानों का खून पीने वाले ड्रैकुला रूपी मच्छर और मलेरिया पर खास रिपोर्ट.तराई की बैल्ट पहले मच्छर और मलेरिया से हमेशा पीड़ित रहती थी रुद्रपुर हल्द्वानी में इसके स्पेशल सेंटर भी बनाये गए. जिसमे अलग से स्टॉफ की नियुक्ति भी की गई. वर्तमान में तो ये सेंटर खंडहर से बन गए है. आज 20 अगस्त 1897 को माना जाता है इसकी खोज सर्जन रास ने की थी जिनको 1902 में नोबल पुरुस्कार से नवाजा भी गया था.
इंसानों का खून पीने वाले ड्रैकुला रूपी मच्छर और मलेरिया पर खास रिपोर्ट
पाठको को बताये चले कि मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है,जिससे मनुष्य में सक्रमन फैलता है. डेंगू और मलेरिया मच्छरों से फैलने वाली एक प्रकार की बीमारी है जो अक्सर बरसात के मौसम में काफी सक्रिय हो जाती है। मलेरिया और डेंगू के मच्छर अक्सर सूर्यास्त होने पर लोगों को निशाना बनाते हैं। अगर एक बार मलेरिया और डेंगू के वायरस मानव शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इंसान को अक्सर चढ़ उतर कर तेज भुखर आता है और जब तक दवा का असर रहता है तो बुखार सही रहता है और दवा के प्रभाव खत्म होते ही फिर से तेजी से बुखार चढ़ने लगता है और इसके अत्यधिक प्रभाव के कारण मानव रक्त के रक्त प्लेटलेट्स में भारी कमी आने लगती है और जिसके कारण इंसान के शरीर की इन रोगों से लड़ने की क्षमता खत्म होने लगती.
सारे मच्छर ड्रैकुला नहीं होते हैं, अगर सारे मच्छर ड्रैकुला होते, तो इंसानों का दुनिया में जीना मुश्किल हो जाता.
1832.में अल्मोड़ा में जन्मे सर्जन रोनाल्ड रॉस अल्मोड़ा पड़े उससे आगे की पढ़ाई के लिए 1857 में इंग्लैंड चले गए 1887 में सर्जन बने. तब मलेरिया का प्रकोप बहुत ज्यादा रहता था लोग इससे बचने के लिए कुनैन का उपयोग करते थे. पर मलेरिया की वजह से हर साल हजारों लोग मारे जाते थे। अंग्रेज सर्जन को पता था कि मलेरिया के अध्ययन के लिए भारत सबसे मुफीद है, क्योंकि यहां कुछ मौसमों में मच्छरों की बहार रहती है। शाम होते ही कानों के पास मच्छरों का शैतानी संगीत गूंजने लगता है। भले उनका संगीत एक जैसा हो, पर मच्छर कई प्रकार के होते हैं। वह सर्जन भी सिकंदराबाद की अपनी प्रयोगशाला में उन दिनों खूब मच्छर पाला करते थे, उन पर शोध करते थे। मानसून से तरबतर जुलाई का महीना चल रहा था, प्रयोगशाला में 20 वयस्क भूरे मच्छर पल रहे थे। मलेरिया के एक मरीज हुसेन खान को खोजकर मुश्किल से तैयार किया गया था, कहा गया कि मच्छरों से कटवाने के पैसे दिए जाएंगे। वयस्क मच्छर उस पर छोड़े गए, हुसेन खान ने उन्हें काटने और खून पीने दिया, जिसके लिए कुल आठ आने का भुगतान हुआ। सेवकों ने खून पीने वाले मच्छरों को घेरकर पकड़ा और फिर परखनली में बंद कर दिया। परखनली में कुछ बूंद पानी रखा गया और उसके मुंह को रुई के छोटे फाहे से बंद कर दिया गया। एकाध मच्छर यूं ही मर गए, सर्जन ने बाकी मच्छरों की चीरफाड़ शुरू की, ताकि उनके शरीर में मलेरिया विषाणु का पता लगाया जा सके।20 अगस्त, 1897 को पांचवां दिन था और प्रयोगशाला में एक ही मच्छर शेष था। मच्छरों पर लगातार गड़ी आंखें थकने लगी थीं। सामने एक बहुत भयानक हल्के भूरे रंग का, चितकबरे पैर, लंबी सूंड या डंक और पतली काली पट्टियों वाले पंखों वाला मच्छर था। सर्जन ने बहुत सावधानी से उसका विच्छेदन किया। मन दुखी हो रहा था कि कम से कम हजार मच्छर तो खोज की भेंट चढ़ चुके थे। जब उस आखिरी मच्छर का विच्छेदन किया, तो पूरी सावधानी से परखा। वह सर्जन उसके प्रत्येक माइक्रोन को ऐसी सतर्कता से खोज रहे थे, जैसे कोई एक छोटे से छिपे खजाने के लिए किसी विशाल खंडहर महल को खंगालता है। शायद यह मच्छर भी कोई सुबूत देकर नहीं जाएगा। पहली नजर में कुछ नहीं दिखा, लेकिन जब गौर किया, जो पेट में एक अजीब संरचना नजर आई। माइक्रोस्कोप की मदद से और परखा, सामने दिख रही 12 कोशिकाओं में छोटे-छोटे दानों का समूह था। वह काले रंग के मलेरिया परजीवी थे, जो मच्छर के पेट में पल रहे थे।मानव जाति के लिए वह निर्णायक क्षण था,सर्जन रोनाल्ड रॉस ने दुनिया को बता दिया कि वास्तव में मच्छर के काटने से ही मलेरिया होता है, मच्छर काटता है और मलेरिया के परजीवी विषाणु मानव शरीर में घर बनाकर जानलेवा हमला करते हैं। आज इंसानी सभ्यता उनकी कर्जदार है, उन्होंने मलेरिया के खिलाफ जंग में इंसानों की फतह के लिए रास्ता तैयार किया था। रोनाल्ड रॉस (1857-1932) को इस खोज के लिए 1902 में नोबेल सम्मान से नवाजा गया। जिस दिन उन्होंने मलेरिया परजीवी की खोज की थी, उस दिन 20 अगस्त को दुनिया में मच्छर दिवस मनाया जाता है।